Sunday, February 25, 2024

आम लोगों की माइग्रेशन की कहानियाँ (Social Tales of Social Engineering) 26

अब वि राज मान तो होना चाहिए, सत्ता के गलियारों के हिसाब से, आम आदमी की ज़िंदगियों में भी? AP   R   IL (2024?) सही महीना है उसके लिए? और तारीख़ क्या होंगी? 

पूजा का प्रसाद, ईधर से उधर होने के लिए MA   R    CH (2024?) सही रहेगा? उनकी तारीख़ क्या होंगी? खास तरह की पूजा-अर्चना की विधि समझने के लिए कौन-कौन से प्रोजेक्ट्स को पढ़ना चाहिए? सिविल और डिफ़ेन्स की विधियाँ अलग हैं? और इंजीनियरिंग और डॉक्टर्स की अलग? ऐसे ही कुछ प्रोजेक्ट्स समझने की कोशिश है आजकल।   

एक विराजमान यहाँ होगा, तभी तो दूसरा कहीं और होगा? वैसे ये जो अब वापस अपने घर होगा, ये वहाँ से निकाला कौन-सी पार्टी वालों ने था? एक रितु यहाँ से खाएँगे, तभी तो एक पूजा (नर्स) के जाने की भरपाई कहीं और होगी? और दूसरी पूजा (टीचर) कहीं और खिसकेगी? ये कौन-सी और कैसी सेनाओं के इधर से उधर आम लोगों की (By Invisible Enforcements) माइग्रेशन की कहानियाँ हैं? सिर्फ माइग्रेशन भी कहाँ? उनके परिणाम? या कहना चाहिए खासकर दुष्परिणाम? रिश्ते-नातों की दूरियाँ, कोर्ट्स में केसों की कहानियाँ, लोगों की आत्महत्याओं या खात्में की कहानियाँ, बच्चों के अनाथ होने की कहानियाँ, स्कूल स्तर पे ही बोर्डिंग स्कूलों के हवाले होने की कहानियाँ, भावनात्मक स्तर पर खोखले या असुरक्षित इंसानो की कहानियाँ? अपनों के इधर या उधर छूट जाने की कहानियाँ? Enforced माओं या बापों के आने या जाने की कहानियाँ? घरों के उजड़ने या बसने की कहानियाँ? आर्थिक या ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे एंगल तो फिर किसी रुंगा या प्रसाद जैसे ही होंगे, ऐसे-ऐसे हादसों में? Designed Tragedies?          

भाभी के जाने के बाद, और पड़ोस में, घर-कुनबे में ही, किसी के यहाँ दूसरी बहु आने पर, जब गुड़िया ने बोला, बुआ आपको पता है, उनके यहाँ नई बहु आई है। वो मेरी मम्मी की जगह आई है। पुरानी कहाँ गई? और उसकी बेटी? मेरी उनसे बात करवा दो। मुझे लगा, बच्चे को भावनात्मक बेवकूफ़ बनाया जा रहा है। सच भी, जाने वाले वापस कहाँ आते हैं? मगर, जुए के इन अजीबोगरीब खेलों में, ड्रामों में आते-जाते रहते हैं, शायद। जब जुआ ही हो गया, तो क्या बहु-बेटियों का फर्क और क्या भाई और बटेऊओं का? सब का गोबर-गणेश जैसे? किसी को भी, कुछ भी बना दो। किसी का किरदार थमा दो। तमाशा ही तो है। वही चल रहा है। इधर भी, उधर भी। उधर भी और उधर भी। आप कहाँ रह रहे हैं, इससे बहुत फर्क पड़ता है। ये सिर्फ आपके घर का कैसा माहौल है की बात नहीं है। बल्की, कभी-कभी शायद अड़ोस-पड़ोस, मौहल्ला, गाँव या शहर, ये देश या वो देश भी, ज़िंदगी को कितनी ही तरह से बनाता या बिगाड़ता है। इसलिए आपका पता आपकी बहुत बड़ी पहचान है, ID है। पहले ये सब ऐसे समझ नहीं आता था। यूँ लगता था की क्या फर्क पड़ता है? पड़ता है, एक ही मौहल्ले में भी एक घर से दूसरे घर के पते पर ही कोई सिस्टम ही बदल जाता है। एक गली से दूसरी गली पर शायद बहुत कुछ बदल जाता है।         

बचा जा सकता है क्या इन सबसे? अपनों से ज्यादा बात कर, बाहर वालों की बजाय। क्यूँकि, जहाँ जितना ज्यादा उल्टा-पुल्टा है, वहाँ लोगबाग उतने ही ज्यादा दूसरों के सुने, कहे गए किस्से-कहानियों (narratives, perception) के हवाले हैं। वो इतना कुछ सच मान सकते हैं, जैसे वो तो live-in रह रही थी। किसी और की या अपने किसी की कहानी या ज़िंदगी की हकीकत बता, इशारा किसी और की तरफ करने वाले घर-घुसडु। जिन बेचारों को ये तक खबर ना हो, की वो उस वक़्त टाँग तुड़ाये पड़ी थी। और कोई बच्चा उसके पास रह रहा था। जो इतना छोटा था की लक्ष्मणरेखा से घेरे बना, कीड़े-मकोड़ों को मारने जैसे खेल खेलता था। उसके बड़े भाई-बहन डिपार्टमेंट तक छोड़ने और लेने जाते थे। और उनकी माँ (मेरी cousin), नौकरी और घर के कामों के बावजूद, मेरे छोटे-मोटे काम निपटा के जाती थी। इसी तरह के कितने ही narratives, perceptions घर के तकरीबन हर इंसान के बारे में सुनने को मिले। भाभी के जाने के बाद जो चला, उससे बेहुदा षडयंत्र तो शायद ही कोई हो। क्यूँकि ना तो जाने वाले को बक्सा जा रहा था, ना जो बचे थे उन्हें। जिन्होंने बच्चे तक को नहीं बक्सा, वो और किसे बकसेंगे? वैसे ये In, Out भी बड़े अजीब हैं। शब्दों के हेरफेर जैसे। एक तरफ Live-in, Live-out जैसे अमेरिकन Resident-in, out type? तो दूसरी तरफ Checked-in, checked-out type? यहाँ पे residence की बजाय airport आ गया लगता है, खास तरह के experimental type? कलाकार ही जानें और कितनी तरह के in और out होते हैं? यहाँ, जहाँ आजकल हूँ,  तो दरवाजा खोल दिया बाहर की तरफ या अंदर की तरफ और लो हो गया in, out । अब ये दरवाजे भी कितनी ही तरह के हो सकते हैं। Offensive, Defensive या Neutral?                                     

बुनाई सामाजिक ताने-बाने की, कितनी सिद्धत से? वो भी औरों की ज़िंदगियों में, घरों में, कुनबों में, मौहल्लों में, रिश्ते नातों में? सबसे बड़ी बात, खुद दूर, बहुत दूर बैठकर। लोगबाग तुमसे कभी मिले नहीं, तुम्हें शायद जानते तक नहीं। आम लोगों को कोई खबर नहीं की ये राजनीतिक पार्टियाँ क्या-क्या और कैसे-कैसे काँड रचती हैं। बड़े लोगों का संसार और हद गिरे हुए दर्जे का कंट्रोल, लोगों की ज़िंदगियों पर। एक ऐसा कंट्रोल, जिनमें उन्हें खबर ही नहीं, की वो कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ, कौन से स्तर तक कंट्रोल हो रहे हैं। और ऐसा करके कंट्रोल करने वालों को क्या मिल रहा है? 

रिश्ते-नातों के हूबहू से झगड़े। जमीन-जायदाद के हूबहू से झगड़े। अंजाम भी हूबहू से ही? हाँ। सिर्फ भेझे से पैदल लोगों के यहाँ। कमजोर तबकों में। क्यूँकि, उनमें और यहाँ खास फर्क है, संसाधनों का, ज्ञान का। जो उन्हें बचा लेता है, बहुत से बुरे प्रभावों से। मगर यहाँ, ना सिर्फ रिश्ते-नातों को ख़त्म कर देता है, बल्की ज़िंदगियाँ ही खा जाता है। अहम, उसके लिए खुद आपको अपनी सेनाओं की तरह प्रयोग करते हैं। मानव रोबॉट बेहतर शब्द है, शायद? या चलती-फिरती गोटियाँ? खुद आपके अपने खिलाफ और आपके अपनों के खिलाफ। दुष्परिणाम, अगली पीढियाँ और ज्यादा भुगत रही हैं, ना सिर्फ भावनात्मक स्तर पे, बल्की बदले माहौल की वजह से।                         

Social Engineering इसी को बोलते हैं? और Social Tales, लोगों की ज़िंदगियों के आसपास ही घुमती हैं? मगर ऐसे की आभासी और हकीकत की दुनियाँ का फर्क ही जैसे खत्म होता लगे। और ये सब घुमा कौन रहा है? Social Media Culture, जिसमें वो सब आता है जो आप देख, सुन या अनुभव कर सकते हैं। 

आप क्या देख, सुन या अनुभव कर रहे हैं?

ये सब इस पर निर्भर करता है की आप कैसे माहौल से घिरे हैं। जिसमें इंसानो के साथ-साथ, वहाँ का हर जीव और निर्जीव शामिल है। जो आपको बहुत कुछ बिना कहे भी कहते हैं। बिना सुनाए भी सुनाते हैं। और अंजान होते हुए भी अहसास कराते हैं। जैसे हवा, पानी, खाना-पीना, पहनावा, रीति रिवाज़, धर्म मजहब, पढ़ाई-लिखाई का होना या ना होना, शिक्षा का स्तर, भाषा-बोलचाल,  आर्थिक स्तिथि, न सिर्फ आपकी खुद की, बल्की आसपास की भी। यही सब अच्छी या बुरी ज़िंदगी बनाता है। और यही सब ज़िंदगी को छोटी या बड़ी करता है।    

Friday, February 9, 2024

जालसाजी करना, हेराफेरी करना (Social Tales of Social Engineering) 19

जालसाजी करना, हेराफेरी करना (Creation of Fake Situations)

जो सच ना हो, वो दिखाना, बताना या अनुभव करवाना। 
Brainwash, जो पहले से है, उसे खत्म कर या मिटाकर नया रख देना। उसपे, ये दिखाना, की ये आपके फायदे के लिए है। चाहे उसमें आपका नुक्सान ही क्यों हो। 
किसी को गोटियों की तरह प्रयोग करने का मतलब यही होता है। वहाँ पे, आपको सब आपके भले के लिए दिखाया जाता है। दुष्परिणामों के बारे में नहीं बताया जाता। ऐसा करने वाले कोशिश करते हैं, की दुष्परिणामों की आपको भनक तक ना लगे। क्यूँकि, अगर ऐसा हो गया, तो सामने वाले का खेल खत्म। 
कुछ वक्त हो सकता है, आपको फायदा हो। वो विस्वास दिलवाने का अहम हिस्सा है। विस्वास या आस्था, इंसान से बहुत कुछ आसानी से करवा देते हैं। जैसे कुछ लोग, अपनों तक की बली सकते हैं, उसी विस्वास के सहारे। Brainwash करने वाले जब नुकसान करेंगे, तब नहीं बताएँगे। वो नहीं बताएँगे की यहाँ ऐसी कोई बीमारी है ही नहीं। नहीं बताएँगे, अगर हॉस्पिटल गए तो क्या परिणाम हो सकते हैं। इसमें गए तो क्या और उसमें गए तो क्या। नहीं बताएँगे की जो बदलाव आपके घर में हो रहे हैं या कहो की करवाए जा रहे हैं, उनके परिणाम आगे क्या हो सकते हैं। जो गाड़ी या कोई खास व्हीकल्स आपको धकेल दिए गए हैं, वो कैसे कैसे हादसे करवाने के लिए दिलवाए हैं। अजीब लग रहा होगा ना, आपको ये सब पढ़कर? आएँगे इन सब पर भी आगे कुछ पोस्ट्स में।      

कितनी तरह से जालसाजी या हेराफेरी हो सकती है? 
और कितनी ही तरह के तरीके हो सकते हैं, वो सब करने के?    

कितनी तरह की जालसाजी हो सकती है? कोई गिनती ही नहीं। कितने भी तरह की हो सकती है। 
और कितनी तरह के तरीके हो सकते हैं, जालसाज़ी करने के? उनकी भी कोई गिनती नहीं। 
इसे कुछ-कुछ ऐसे समझें, जैसे Tongue Twisters. कितनी तरह के Tongue Twisters हो सकते हैं? कितने ही ईजाद कर लो। बहुत से आपने भी सुने होंगे? जैसे --

समझ समझ के समझ को समझो, समझ समझाना भी एक समझ है। 
डबल बबल गम, बबल गम डबल।  
खड़ग सिंह के, खड़काने से, खड़कती हैं, खिड़कियाँ।  

छोटे बच्चों को इन्हें जल्दी-जल्दी बोलने को बोलो। शायद नहीं बोल पाएँगे। आराम से? शायद, एक-दो बार गलत करने पे, सही बोल पाएँ। 

शायद इसीलिए कहते हैं, जल्दी का काम शैतान का काम। कोई भी काम जल्दी में ना करें। हो सकता है, कोई शैतान करवा रहा हो, और बाद में पछताना पड़े। वो Mind Twisters (दिमाग घुमाऊ) हो सकते हैं। मतलब, दिमाग को बंद कर दें, चाहे कुछ वक़्त के लिए ही सही। या दिमाग घुमा दें, किसी और ही एंगल पे। आराम से करोगे, तो दिमाग को सोचने का वक्त मिलेगा। और शायद कोई शैतानी या दुश्मनी या जालसाज़ी, वक़्त रहते सामने आ जाए। घुमाया हुआ दिमाग वक़्त रहते, ठिकाने आ जाए।  
जल्दबाज़ी में और भी बहुत कुछ होता है। जैसे गुस्सा, जल्दबाज़ी करता है। काम, क्रोध, द्वेष जैसी कितनी ही जल्दबाज़ियाँ, कितनी ही बिमारियों और नुकसानों की वजह बनती हैं। 

अचानक फेंके गए Mind Twisters शायद समझ ना आएँ। Mind Twisters, आपकी भावनाओं से खेलते हैं। भड़काना जैसे। गुस्सा दिलाना। किसी के खिलाफ नफरत या लगाव पैदा करना। किसी और की आफ़त, आपके सिर डालना।  क्यूँकि, उनका मकसद ही सामने वाले को दिमाग से अँधा करना होता है। आम भाषा में जिसे, दिमाग से पैदल भी कहते हैं। बहुत बार, दिमाग से अँधा करने का मतलब, अपनों से या आपका हित चाहने वालों से दूर करके, अपना स्वार्थ सिद्ध करना भी होता है। नहीं तो, क्यों किसी को दिमाग से अँधा करने की कोशिश करना? शैतान लोग ही कर सकते हैं, ऐसा काम।     

कोरोना का वक्त Mind Twisters का सबसे बढ़िया उदहारण है। इस वक़्त ने ऐसे-ऐसे लोगों को उठा दिया, जिन्हें अभी ज़िंदा रहना था। मगर कैसे उठा दिए?

दुनियाँ को बंद करके। लोगों के दिमाग में भय के भूत घुसाकर। जो कमजोर होंगे, थोड़े बहुत भी बीमार होंगे, वो ऐसे माहौल में वैसे ही उठ जाएँगे। वहाँ ज्यादा कुछ करने की जरुरत नहीं। इधर-उधर के खामखाँ के, धक्के खिला दो। ये दवाई खत्म या वो खत्म गा दो। जिन्हें BP जैसी, थोड़ी बहुत भी शिकायत रही हों या ना भी हों। सिर्फ दिल से कमजोर हों, उन्हें भी आसानी से उठाया जा सकता है, ऐसे माहौल में। जिन्हें बहुत वक़्त से थोड़ी बहुत ही सही, बीमारियाँ हों? वैसे भी, ऐसे माहौल में तो किसी को भी, एक बार हॉस्पिटल पहुँचा दो और हो गया काम। शैतान, जिसका चाहें, उसका कर देंगे काम तमाम। ये भी नहीं कह सकते, की सब हॉस्पिटल और सब डॉक्टर ही बुरे हैं। बस कुछ ही होते हैं, ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी हाय-तौबा मचवाने के लिए। ज्यादातर मीडिया इस दौरान, वही कर रहा था। वैसे डॉक्टर वो भी हैं, जिन्होंने खुद ऐसा करने वाले डॉक्टरों या वैज्ञानिकों या प्रोफेसर्स के बारे में हिंट्स बाहर धकेले। चाहे गुपचुप ही सही। अब मरने से तो हर किसी को डर लगता है, ना। और कुछ नहीं तो देशद्रोह ही लगा के अंदर कर देंंगे।    

जालसाज़ी, हेरा फेरी या दिमाग घुमाऊ (Mind Twisters) तरीके अपनाके, क्या कुछ किया जा सकता है?
जो कुछ आपके पास है, वो सब छीना जा सकता है। 
शायद आपके ज्ञान या पढ़ाई को छोड़ के? या शायद वो सब भी छीना जा सकता है?

और क्या कुछ किया जा सकता है?
जो बीमारी आपको ना हो, वो बताई जा सकती है। 
आपको सिर्फ डॉक्टर तक ही नहीं, बल्की हॉस्पिटल एडमिट तक किया जा सकता है। 
ऑपरेशन किया जा सकता है। 
अंग बदले जा सकते हैं। निकाले जा सकते हैं। 
इंसान को दुनियाँ से ही उठाया जा सकता है। 
ऐसे ही कोई इंसान, घर से बदला जा सकता है। किसी की जगह कोई और लाया जा सकता है। आपका घर, नौकरी, रिश्ते-नाते, जमीन-जायदाद भी छीना जा सकता है। हड़पा जा सकता है। 

और क्या कुछ किया जा सकता है? सोचो आप? 
अगर वक़्त रहते आप संभल जाएँ या आसपास कोई ऐसा हो, तो बहुत कुछ वापस भी लाया जा सकता है। उसके भी तरीके हैं। हाँ। खोया वक़्त और दुनियाँ छोड़ के गया इंसान वापस नहीं लाया जा सकता। 
आगे की कुछ पोस्ट्स में, कुछ ऐसे ही उदाहरणों पे आते हैं, आम आदमी की ज़िंदगी से। और शायद कुछ खास तरह की और जमीनों की खरीद परोख्त पे। गाड़ियों से जुड़े अजीबोगरीब हादसों पे और बीमारियों पे भी।      

Saturday, February 3, 2024

नशे की लत और नशा मुक्ती केंद्र (Social Tales of Social Engineering) 11

अगर आप किसी अपने को किसी भी किस्म की बीमारी से बचाना चाहते हैं तो सीधी सी बात, हॉस्पिटल भी लेकर जाओगे। और वहाँ जाके पता चले की पीने वालों का ईलाज हॉस्पिटल नहीं, नशा मुक्ती केंद्र हैं। किसी आसपास के नशा मुक्ती केंद्र में छोड़ दो। कुछ महीने में ही फर्क देखने को मिलेगा।

2010 में दादा की मौत। और उसके बाद मेरा घर आना-जाना जैसे 2-4 घंटे का ट्रिप कोई, 10-15 दिन में। मेरे से छोटे दो भाई हैं। 

सबसे छोटा परमवीर, जिसकी 2005 में शादी हो गई। 

सुनील उससे बड़ा और मेरे से छोटा, जिसे बचपन में ही बुआ ले गई थी अपने पास पढ़ाने। ठीक-ठाक था पढ़ाई लिखाई में, गाँव के बच्चों के हिसाब से। 10 वीं तक ठीक-ठाक। फिर शायद, थोड़ा कम ठीक-ठाक।  12वीं वहीँ से की। फिर गाँव आ गया और वक़्त के साथ पढ़ाई-लिखाई बंद। घर पर कम, संदीप (गाँव का ही भाईबंध) के यहाँ ज्यादा रहने लगा। मैंने कम्पुटर में दाखिला दिलवा दिया। संदीप और ये दोनों कुछ वक़्त साथ गए। फिर इसने बंद कर दिया। संदीप ने पूरा कर लिया। छोटा-मोटा सा डिप्लोमा था। यहाँ से गड़बड़ हो गई? 

बाद में जो समझ आया, भाषा की समस्या, जिसने इसे भगा दिया। संदीप पार गया। संदीप TATA-AIG में लग गया और उसके कुछ वक़्त बाद, छोटे भाई ने भी कुछ वक़्त उसके साथ काम किया। मगर बात जमी नहीं और वापस गाँव आकर खेती करने लगा। भाभी, किसी दूसरे स्कूल में पढ़ाने लगी। छोटा भाई ठीक-ठाक जम गया। छोटा घर रहा था, तो उससे लगाव ज्यादा था। फिर भाभी भी कहीं न कहीं, एक कड़ी का काम करती थी। छोटा, माँ का भी लाडला रहा है। 

मगर सुनील कहीं गुम हो गया। खासकर, दादा की मौत के कुछ साल बाद। मेरी भी उससे बोलचाल कम होती थी, विचारों के मतभेद ज्यादा होने की वजह से। या शायद, ज्यादातर बचपन एक-दूसरे से दूर बिता था, ये भी एक वजह हो। मझला, मझदार में रह गया जैसे। ना इधर का, ना उधर का। संदीप की शादी हो गई और वक़्त के साथ उसकी दोस्ती भी गई। दादा के जाने के बाद, कुछ हद तक, घर का सहारा भी। बेघर, जैसे। 2011 में, हमारे यहाँ लाला (एक और संदीप) रहता था, उसने खुदखुशी कर ली, गेँहू में डालने की दवाई खाकर। वो भी दादा के जाने के बाद, शायद बेघर-सा ही अनुभव करने लगा था। उसपे उसी दौरान, उसकी माँ भी मर गई थी। 

              
2012 शायद, गाँव में एक केस होता है। और जाने क्यों उस केस में मेरी रुची। जाटों के कुछ बच्चों ने, चमारों के 2-बच्चे मार दिए। कुछ का कहना है, अटैक एक पे था, दूसरा हार्ट अटैक से मर गया। 24 को पुलिस ने उठा लिया। 10-15 दिन बहुत से घरों के हाल ऐसे, जैसे सन्नाटा पसरा हो। कुछ के माँ-बाप को पुलिस ने उठा लिया। गाँव के नाकों पर जबरदस्त, पुलिस पहरा। इन 24 में, कुछ नाम जैसे, जाने-पहचाने से। मगर, उससे भी खास, क्या सच में बच्चों की आपसी कहा-सुनी से शुरू हुई लड़ाई में, इतने शामिल होंगे? चाचा के यहाँ थोड़ा आना-जाना भी बढ़ गया। अड़ोस-पड़ोस को जानने की रुची भी। पहली बार जेल में किसी से मिलने का और जेल को इतने पास से देखने का अनुभव भी, उसी वक़्त हुआ। और ज्यादा जानने की रुची भी। इस केस ने कई सारे बच्चों की ज़िंदगियाँ लटका दी जैसे, या बर्बाद कर दी। कई मुझसे कई साल छोटे। जिन्हें मैं अगली पीढ़ी बोलती हूँ। कई सारे आसपास से ही। कुछ पास में ही पंजाबी चौक से। इस केस के बहुत सालों बाद समझ आया, की ये भी एक सामाजिक सामांतर घड़ाई थी। ठीक वैसे ही, जैसे सुनील का शराब की लत का केस और इसके आसपास के किरदारों की कहानियाँ। इसके पास आने-जाने वालों के नाम, या नाम भर के दोस्तों के नाम, जैसे उस वक़्त की कहीं और की, कोई और ही कहानी सुना रहे हों। ये भी, अभी पिछले कुछ सालों से समझ आना शुरू हुआ है। माहौल, कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ से बनता है? मतलब, यूनिवर्सिटी के कैंपस क्राइम सीरीज का अध्ययन ना होता, तो इन सामाजिक सामान्तर घड़ाइयों के और सामाजिक इंजीनियरिंग जैसे विषयों की भी भनक तक, ना लगनी थी। ये संसार तो मेरे आसपास पहले भी था। मगर, ऐसे कहाँ समझ आता था, जैसे अब?      

इसी दौरान, सुनील के हालात भी पता चले, की वो बेघर, बहुत ज्यादा पीने लगा है। इधर-उधर मंदिर या गुरुद्वारे खाना खाता है। संदीप को गालियाँ देता है। अब कोई शादी भी ना करे? मेरी और सुनील की बोलचाल ही बंद थी, कुछ वक़्त से। माँ और भाभी से बात हुई, तो पता चला घर कम ही आता है। क्यूँकि, उसका संदीप के घर का ठिकाना भी, काफी हद तक छूट चूका था, खासकर संदीप की शादी के बाद। पड़ा रहता है, कहीं-कहीं। गन्दी-गन्दी गालियाँ देने लगा है, हर किसी को। उसे किसी को बोल के बुलाया। हालात देखे, तो जैसे खुद पे शर्म आ रही थी, की मैं बहन हूँ उसकी? फट्टे-पुराने गंदे कपडे, टूटी चपलें। 

मैंने बोला, साथ चलेगा यूनिवर्सिटी? 
उसने मना कर दिया, मगर आँखों में आँसू थे। 
चल, कपड़े वगरैह ले आना, फिर वापस आ जाना। 
आज याद आ गई तुझे मेरी। आज से पहले नहीं पता था, की मैं कहाँ मर रहा हूँ?
डॉयलोग फेंक लिए हों, तो आजा। 
और वो बैठ लिया साथ में। 
अगली बार घर आई तो अड़ गया, जैसे बच्चा अड़ जाता है। साथ चलना है, मुझे यूनिवर्सिटी। 
कपड़े फिर से गंदे, सड़े हुए, बदबू मार रहे। इस हाल में? नहा-धोके, कपड़े तो बदल आ।  
लेके चलना है, तो चल। बकवास मत कर। 
अच्छा। चल। 

अब ये उसका रुटीन बन गया। मगर सिर्फ 2-3 दिन, वो भी 2-3 महीने में एक-आध बार ही। थोड़ा बहुत सामान लिया और कोई ना कोई बाहना मारके गुल। या पीकर बकवास शुरू और मुझे निकालना पड़े या वापस छोड़के आना पड़े घर। यहाँ से, ये भी समझ आया की नशे की लत का मतलब, खुद उस इंसान के लिए और घर वालों के लिए क्या होता है। अपना खुद का ठिकाना ना होना। कोई खास सहारा ना होना। उसपे अगर काम-धाम भी ना हो, तो और मुश्किल। नहीं तो पीती तो बहुत दुनियाँ है। सबके ऐसे हाल कहाँ होते हैं? क्यूँकि, उन्हें गिराने से ज्यादा, सहारा देने वाला सिस्टम काम करता है। ज्यादातर घर का। शराब से दूर करने वाला सिस्टम। दिमागी तौर पर, मजबूत करने वाला सिस्टम। कमजोर प्राणी को ज्यादातर मासाहारी जैसे ताकतवर प्राणी खाते हैं। वो फिर चाहे, आदमी के खोल में ही क्यों ना हों। आदमी या कोई सभ्य समाज तो ऐसा नहीं कर सकता, शायद ?    

इसी दौरान ऑनलाइन नशा मुक्ती केन्द्रों के बारे में सर्च किया। थोड़ा बहुत नशे की लत के कारणों और निवारणों के बारे में भी पढ़ा। यहीं से शायद, एक नशा मुक्ती केंद्र चुना। जो दिल्ली के पास ही था, खरखौदा। विरेंदर या बीरेंदर उसका डारेक्टर था। कॉल किया, बात की और वो खुद ले गए उसे। उसी दिन खुद भी साथ-साथ गए देखने और केंद्र के बारे में जानने। सब सही लग रहा था।   

दूसरी बार, जब मिलने गए, तो कुछ सही नहीं लगा। सुनील ने कहा, मुझे निकाल ले यहाँ से। ये मार देंगे मुझे। और नहीं निकाला, तो बाहर निकल के मैं तुम्हें मारुँगा। और जो तुम सामान देके जाते हो ना मुझे, वो भी मुझे नहीं मिलता। मैंने नशा मुक्ती केंद्र के डारेक्टर से बात की, की क्या अंदर से हम आपका सेंटर देख सकते हैं? उसने एक बार तो मना कर दिया। काफी बोलने के बाद, संदीप को थोड़ा बाहर-से ही दिखाने के लिए हाँ कर दी।

वहाँ से मैं आ तो गई, मगर कुछ हज़म नहीं हुआ। अगले महीने का इंतजार करने की बजाय, जल्द ही उसे वापस ले आए। मगर, सुनील के हालात ऐसे हो रहे, जैसे मारना साँड़। मारुँगा, काटुँगा, छोडूँगा नहीं तुम्हें। पता नहीं ये सिर्फ Withdrawal Symptoms की वजह से था या जो वो कह रहा था, वही शायद से हकीकत थी। उसने बताया, वहाँ लोग जेल से और पुलिस से बचने के लिए छुपते हैं। वहाँ सिर्फ शराब की लत वाले नहीं, बल्की blah blah ड्रग्स की लत वाले भी रहते हैं। वो भी, सब एक साथ। हम जैसों के साथ मार-पिटाई होती है। गैस के सिलिंडर बाजुओं पे लटका देते हैं। सपने में भी नहीं सोचा था, की नशा मुक्ती के नाम पे ऐसे-ऐसे सेंटर भी होते हैं?

संदीप और अनिशा (भाभी) का उन दिनों काफी आना-जाना था, यूनिवर्सिटी वाले घर। H#16 वाले वक़्त। H#30 के वक़्त ने तो जैसे, सब इधर-उधर खदेड़ दिया। दोनों की लव-मैरिज है, इंटरकास्ट। थोड़ा बहुत विरोध-अवरोध। मगर ज्यादातर ऐसे केसों में, कुछ वक़्त बाद शायद सब सही हो जाता है। खासकर, आप गाँव ना रहें तो। संदीप दोस्त रहा था सुनील का, और केयर अभी भी करता था। ऐसे ही सुनील के बारे में बात चल रही थी, तो उसने कहा, दीदी मेरी जानकारी में एक नशा-मुक्ती केंद्र है। वहाँ करवा दो इसे। शायद, कुछ ठीक हो जाए। और उसे करवा दिया, फिर से नशा मुक्ती केंद्र। अबकी बार, राजस्थान। 

वापस आते वक़्त गाडी का भयंकर एक्सीडेंट, हिसार के आसपास शायद। 2-3 सैकंड का समय ऐसे लग रहा था, जैसे खत्म। गाड़ी 110 या 120 KM की स्पीड से टेढ़ी-मेढ़ी होती, पता ही नहीं कहाँ जा रही थी। संदीप ड्राइवर सीट पे। मैं साइड सीट पे। और पीछे वाली सीट पे, उसकी मौसी का लड़का। 

मेरे ऊपर खून के टपके, गाड़ी की छत से। मैंने ऊपर देखा, तो कोई सींग दिखाई दिया। थोड़ी शांति हुई, की आदमी नहीं है। आगे शीशा चुरचूर। सीसे का बूर आँखों पे भी था, तो धुंधला-सा दिखा। रोज (नीलगाय) था। कुछ ही दूरी पर, थोड़ी देर बाद गाड़ी कंट्रोल हो गई। सारे सेफ थे। गाडी साइड लगा बाहर निकले।

गाड़ी की तेज आवाज़ और एक्सीडेंट देख, काफी लोग इधर-उधर खेतों से आ गए। किसी ने कहा, अपने आपको किस्मत वाला समझो, की बचे हुए हो और कोई चोट भी नहीं है। अभी 2-3 दिन में ही यहाँ दो एक्सीडेंट और हुए हैं, नीलगाय की वजह से, और उनमें कोई नहीं बचा। हालाँकि, गाडी की हालत देखकर कहना मुश्किल था, की कोई यहाँ भी बचा होगा। नीलगाय भागती हुई आ रही थी। गाडी की आगे वाली साइड से टकरा कर, गाड़ी के बोनट पर गिर गई। और उसका एक सींग मेरे सिर के ठीक ऊपर, गाड़ी के अंदर घुसा और फिर शायद वो साइड में गिर गई। समझ ही नहीं आया, बचे कैसे? शायद सीट बैल्ट की वजह से। उसकी मौसी के लड़के को जरूर थोड़ी चोट आई। मगर एक्सीडेंट को देखते हुए, कुछ खास नहीं। सुनील, संदीप की माँ को भी माँ बोलता है। कुछ साल, उन्होंने भी काफी भुगता इसे। 

अगली बार नशा मुक्ती केंद्र मिलने गए, तो फिर से वापस ले आए। उसने कहा, मैं नहीं रुकुंगा यहाँ। यहाँ के हाल देख। इस दौरान काफी सर्च किया, नशे की लत पर और नशा मुक्ती केंद्रों पर। शायद पैसा थोड़ा ज्यादा लगता, तो कुछ हो सकता था। पर उसके साथ ये भी समझ आया, की इतना पैसा तो थोड़े-बहुत कंट्रोल में, अगर घर ही लग जाए, तो भी ईलाज संभव है। उसे कहीं वयस्त करने की जरुरत है और आसपास की कंपनी से निकालने की। क्यूँकि, बहुत बार उसने खुद भी शराब पीना छोडा है। और शायद खुद से ना पीने का निर्णय ही, इस बीमारी का प्रभावी ईलाज भी है। या हिमाचल साइड जाता है तो भी, आने के बाद ठीक-ठाक ही लगता है। मतलब माहौल, बहुत कुछ करता है इंसान की ज़िंदगी में, चाहते या ना चाहते हुए भी। 

अभी तक तो जैसे-तैसे बच गया। अब इस अजीबोगरीब राजनीतिक षड़यंत्र से कौन बचाएगा? बच पाएगा, क्या वो इससे?  

Thursday, February 1, 2024

बैंको और जमीनों के अजीबोगरीब किस्से-कहानियाँ (Social Tales of Social Engineering) 10

कुछ साल पहले मैं Sign language जैसा कुछ अध्ययन कर रही थी। यूँ कहो की शुरू ही किया था। और ये मेरा पियक्कड़ भाई। पियक्कड़, गलत शब्द हैं। क्यूंकि विज्ञान के हिसाब से तो ज्यादा पीना भी बीमारी की श्रेणी में आता है। मेरे पास पहुँचता है यूनिवर्सिटी, अब यहीं रहुँगा। बढ़िया। इसका कुछ सामान भी आ गया वहाँ। सामान के नाम पे, एक एकलौती godrej की अलमारी। 


और ये चाबी? ये क्या है? ये तो जरी पड़ी है। ये भी अलमारी में ही पड़ी थी। 

यहाँ इस थोड़ी-सी जमीन पे विवाद का मतलब, लोकेशन ही सब है? उस जमीन का कोढ़ है? और फिर से किसी खास तरह की सामाजिक सामांतर घड़ाई?  ये YES! बैंक की चाबी कौन थमा रहा है?


ये यस बैंक तो नहीं है। कौन-सा बैंक है? 
VYSYA BANK?

मैंने तो ये नाम पहली बार पढ़ा। ऐसा कोई बैंक है? ये चाबी किसकी है? क्या खास है इसमें? ज़री वैसे पड़ी है। फिर इसकी फोटो क्यों चिपका दी यहाँ? 

ये मेरी चाबी है, फलाना-धमकाना वक़्त की। 
अच्छा? 
और ये अलमारी भी तभी ली थी। 
ओह-हो।    

बहुत कुछ चिन्हों और कोई मोहर जैसे-सा, सबके साथ-साथ चलता है। या कहना चाहिए की सिस्टम और राजनीती, बाजार साथ है उसमें, धकाया हुआ। बहुत कुछ पार्टियाँ बढ़ा-चढ़ा के, तोड़-मरोड़ के भी पेल देती हैं। शायद, इस godrej अलमारी के आसपास की ही कहानी, ये स्कूल वाली पुश्तैनी जमीन की है?     

चार कनाल में से दो कनाल जमीन आराम से ली जा सकती है। भला पीने वाले की जमीन लेना भी क्या मुश्किल? खासकर, अगर कोई बचाने वाला या होशोहवाश में, माँ, बहन, भाई या कोई ऐसा और रिस्ता ना हो तो। बोतल दो और ज़मीन लो और जल्दी से उसे भी चलता करो, दुनियाँ से। 

किस पे इल्ज़ाम आना है? पता चलता है की ये तो अपना ही लक्ष्यदीप है। बचाने की कोशिश कर रहा है शायद बेटा, चाचा को भी और उसकी ज़मीन को भी?

वैसे ये VYSYA से होते हुए YES बैंक तक की कहानी क्या है? 

GODREJ अलमीरा का इन सबसे कोई लेना-देना? 

YES! 16? TYPE? अरे Doc साहब, मुन्ना भाई MBBS वाले? और ये पता चलते ही किसी ने किनारा कर लिया?   

और फिर HDFC, ROHTAK? वैसे गाँव में कई सारे बैंक होते हुए, रोहतक में नया अकॉउंट खुलवाने के पीछे मकसद?      


यहाँ भी कुछ अजीब-सा है। 
ध्यान से देखो 
राशि? 
कौन सी राशि हो सकती है ये?
5,17,520. 65625 
पाँच लाख, 17-हजार, पाँच सौ बीस? 
(वैसे, चार सो बीसी, को पाँच सो बीस कब से कहने लगे?) 
अभी खत्म नहीं हुआ 
पॉइंट्स भी नोट करो 
पॉइंट 65652 

कौन-सी राशि हो सकती है ये?  वही COVID वाली? वैसे पॉइंट के बाद, जमीनों के हिसाब-किताबों में इतने सारे डिजिट लगते हैं? मुझे तो बड़ा अजीब लग रहा है। ये कौन-से वाले कोर्ट के हिसाब-किताब हैं? जानकार अगर कुछ बता पाएँ? इससे आगे भी एक फरहा और भी ज्यादा रोचक है। उसके लिए अलग से एक खास पोस्ट लिखनी पड़ेगी। 

बैंको और जमीनों के अजीबोगरीब किस्से-कहानियाँ (Social Tales of Social Engineering) 9

YES सेल हो गया?        

 HDFC पे चलें? 

 जमीन पेपर्स -- Raise Objections and no click?

दिसंबर में जब ये सब ड्रामा चल रहा था, तो भी मुझे यकीन नहीं हुआ, की ऐसा सच में हो सकता है। वो भी वो लोग करेंगे, जिनका नाम आ रहा है? जाने क्यों लोगों को इतना भला समझ लेते हैं? ये जानते हुए, की शिक्षा उनके लिए सिर्फ एक धंधा है। कमाई का साधन मात्र। पैसा आए, चाहे जैसे आए? छोटे भाई ने उनके लिए इतना किया, जब उनका स्कूल बन रहा था। उन्होंने उसके साथ क्या किया? एक केस उसके सिर लगाया, जो एक्सीडेंट सुरेंदर भाई से हुआ था। वो भी घर वालों को अँधेरे में रखकर और उसे बहला फुसलाकर। जब उसकी शादी की बात हुई, तो उनके उस शिक्षा के धंधे पे उल्टा असर पड़ने का डर था। और लड़की के हालात ऐसे बना दिए, की वो मरने की सोचने लगे? चाहते तो, वो शादी ऐसे कोर्ट के चककरों की बजाय, सीधे-सीधे हो सकती थी। यहीं नहीं रुके। उसे स्कूल से भी निकाला। और आम भाषा में जिसे बेईज्जत करना कहते हैं, वो सब सुनाना और प्रचार-प्रसार करना अलग। खैर। वो वक़्त और था, 2005 ।

उसके बाद तो बहुत कुछ बदला। क्या लोगों के विचार और दिलों के कालिख भी बदले?

राजमल नम्बरदार और ये कशिश कौन हैं?

जानते हों तो मिलना एक बार?

कितने पैसे खाने को मिले, ये हस्ताक्षर करने के?

तुम लोगों को शायद पता ही नहीं था, की ये जमीन बिकाऊ ना थी, ना है?


और ना ये पता, की ये सुनील नाम का भाई कब से पीता है?

इसके मानसिक हालात कैसे होंगे, ऐसे में?  

उसे कोई आना भी मिलेगा ऐसे में?

एक-आध आना अगर मिल भी गया, तो कहाँ जाएगा?     



ये कॉपी जनवरी में मिलने से पहले, मैंने ऑनलाइन jamabandi की वेबसाइट पे कोशिश की objection raise करने की। वहाँ रिकॉर्ड भी थोड़ा लेट मिला। मगर वहाँ objection पे क्लिक ही नहीं हो रहा। शायद कलाकारों ने मेरे लैपटॉप पे गड़बड़ कर दी?






शिकायत सुझाव के लिए सम्पर्क करें, पर संपर्क भी किया। उन्होंने कहा, मैडम यहाँ तो कोई शिकायत नहीं लेते। 1000 शिकायत भेझ चुके। कुछ कारवाही तो होती नहीं। मैंने कहा, तहसीलदार का नंबर दे दो। किसी नायब तहसीलदार का मिला, बोले जी तहसीलदार छुट्टी पे है। उससे बात की तो बोला, मैडम सिविल कोर्ट जाओ। अरे भई, ये तो धोखाधड़ी का मामला है। और इन कोर्टों के चककरों में तो, कितनी ही ज़िंदगियाँ तबाह हो गई। 

खैर, वकील को फोन किया, ये जानते हुए की सब सबूत दूसरी पार्टी के खिलाफ होते हुए भी, मेरा वकील जानबूझकर हारता है? अब वकील भी क्या करे? आने तो देती नहीं उसे। वकीलों को भी घर चलाने होते हैं। बोला, मैडम श्याम को कॉल करुँगा। आज तक तो कॉल आई नहीं। कोई बोलता है, फैमिली कोर्ट जाओ। ऐसी कोई कोर्ट भी होती है क्या?

फिर तो ऑन्टी की कोर्ट जाना चाहिए? घर की घर में। थोड़ा बहुत सही बोला तो, उन्होंने ही। छोटे को पिलाई डाँट, तू क्यों बीच में आता है। बोलने से ही नहीं रुक रहा था छोटू। और दबा-दबा सा ही सही कहा तो, ऐसे तो गलत है, किसी की ज़मीन लेना। वैसे कई तरह के सगूफे भी सामने आए, कोई कहे 30 लाख में दी है और कोई 32 । अब ये कौन से वाले कोर्ट के हिसाब-किताब हैं, ये आप जानकार बेहतर बता सकते हैं शायद। 

और हमारे आज के एडवांस्ड-कोर्ट, ये objection भी स्वीकार करें। क्यूँकि, जो थोड़ा बहुत पैसा है, वो तो यूनिवर्सिटी ने ब्लॉक कर रखा है। क्यों कर रखा है, उसपे भी हो सके तो कुछ करें। जहाँ तक मेरी चली, अब किसी और की नौकरी करनी नहीं। नौकरी देने वाले बनेंगे। नहीं तो आखिरी रस्ता, बाहर का तो बड़े लोगों ने दिखा ही रखा है।      

कितने की जमीन दी है और वो पैसा कहाँ है? आते हैं अगली पोस्ट पे।      

बैंको और जमीनों के अजीबोगरीब किस्से-कहानियाँ (Social Tales of Social Engineering) 8

15 दिसंबर को अपना ही एक भाईबंध बताता है, की सुनील की 2-कनाल जमीन, लक्ष्य ने खरीद ली, 

14 December, 2023 को । 

14 में कुछ ज्यादा ही खास है, शायद? 

या 15 में?

या  16 में? 

YES Bank नौटंकी   

एक पार्सल देने वाला आता है, YES बैंक से, सुनील के नाम, घर पे। मगर, उसपे घर का पता तक नहीं था? अगर भेझने वालों को भेजना होता, तो वो उसे सुनील के पास ही घेर में या जहाँ कहीं उस वक़्त वो था, वहाँ भेझते। अरे, उसका तो अपहरण किया हुआ था ना। बोतल सप्लाई, फोन बंद। और सुनील की कोई खबर ही नहीं, कहाँ है। मैंने वो पार्सल देखा और फ्रॉड लगा। और वो पार्सल वापस हो गया। नौटंकी ये भी होती है की लक्ष्य का फोन आ गया पार्सल वाले के पास, और उसने उसे वापस आने को बोला है। खैर। वो पार्सल तो दे चूका था। हस्ताक्षर चाहता था, वो मैंने मना कर दिए, ये बोलके की लक्ष्य ही आ जाएगा करवाने। 

माँ हद से ज्यादा भोली है। हालाँकि, समझती है बहुत परिपक्कव हूँ। शायद इसीलिए, मेरे ऑफिस वाले भी मेरे ऑफिस छोड़ने पे उन्हें बुलाते हैं (2017)। 54 Days Earned Leave केस पढ़ सकते हैं, बेहतर समझने के लिए। वो भी तब, जब मैं लिखके और बोलके गई, की मैं Out of Station होंगी। संपर्क करना हो तो फोन या मेल कर सकते हैं। पर भारत में हम (खासकर लड़कियाँ), बूढ़े होने तक भी बच्चे रहते हैं और अपने फैसले खुद नहीं ले सकते? वो भी So-Called यूनिवर्सिटी के स्तर पर भी? क्या वो माँ-बाप को joining देती हैं या भाइयों को? या तालिबान से संभंधित हैं?   

दूसरी तरफ, ये खास सेल वाले लक्ष्य, "बुआ Protection के लिए ली है, जमीन"। वो भी किससे? जिसे सालों से शराब की लत है, उससे? वो अपने फैसले खुद ले सकता है? वो भी वो ज़मीन, जिसको तुम सालों से मांग रहे थे, मगर हमने दी नहीं।                  

YES बैंक, पार्सल कहानी यहाँ खत्म हो जाती है। इसमें HD Public School से संभंधित कुछ लोगों का भी कोई रोल है, क्या? सिर्फ प्रश्न है। वीरभान केस और साइको इंजेक्शन और उसके बाद खास विजिट Chail, HP? अजय कादयान पार्टी कुछ कहना चाहेगी? कुछ उल्टा-पुल्टा तो कंफ्यूज नहीं कर रही ना मैं? तुम So-Called, पढ़े लिखे, अनपढ़ या तकरीबन अनपढ़, जो शायद ही कभी गाँव से बाहर निकले हों, ऐसे लोगों का शिकार करना चाहते हो? कितने महान और कितने बड़े हो? जानते हो मुझे? सीधे-सीधे बात करने में शर्म आती है? या वो काम नहीं होने, जो ऐसे टेढ़ी उँगलियाँ करके निकालना चाह रहे हो? 

मुझे लालच भी दिया जाता है, इधर-उधर की बातों में, की यूनिवर्सिटी तो तुम्हें तुम्हारी बचत का पैसा देगी नहीं। ये मौका है, पैसा लो और बाहर निकलो। सच में? वो भी छोटे भाई की जमीन औणे-पोणे करके? वो भी वो जमीन, जो इतने सालों माँगने के बावजूद, इन So Called रैईशों को नहीं मिली? मैं तुम्हारे जितनी जलील कहाँ हूँ। मेरा देना बनता है वहाँ, लेना नहीं। यहाँ द्वेष किसी लक्ष्य से भी नहीं है। पर दुख है, की अगली पीढ़ी को भी ऐसे ही घसीटा जा रहा है, बड़े खिलाडियों द्वारा, जैसे हमारी या हमसे पहले की पीढ़ीयाँ भुगत चुकी या अभी तक भुगत रही हैं।     

और पढ़े-लिखे गँवारों, अगर मुझे बाहर ही जाना है, तो पैसे की जरुरत है क्या? वैसे नौकरी नहीं मिलेगी? या रोक दोगे वो भी? अगर जाना ही हो तो रस्ते तो, और भी बहुत हैं शायद? तुम्हें वो नहीं मालूम या सिर्फ ज़मीन के नंबरी खेल के चक्कर में गँवार दिखा रहे हो खुद को? ये Congress पैसा इकट्ठा कर रही है, किसी गरीब की जमीन औणे-पोणे कर? सबसे बड़ी बात, खेल यहीं खत्म नहीं होता। उसके बाद, इस भाई को भी खत्म करना है। खेल तब पूरा होगा? और बहाना होगा की शराब पीता है। ये है, आदमखोर राजनीती।    

मैंने इधर या उधर वालों का साथ नहीं दिया, तो मेरा भी ईलाज होगा। वही, जो भाभी का हुआ है? कोरोना के दौरान, बहुत जगह पीछे पोस्ट्स में आपने पढ़ा होगा Assisted Murders।   

Assisted Murders में वो नहीं होता, जो आपको बताया या सुनाया जाता है। अक्सर वो होता है, जो आपको ना दिखता, ना सुनता और ना पता लगता। फिर कैसे पता लगाएँ? किस्से-कहानियों में, आसपास की ज़िंदगियों की होनी-अनहोनियों में ही छिपा है सब। हालाँकि जरुरी नहीं, सब किस्से-कहानी वही हों, जो वो बताए जा रहे हों। हो सकता है, सिर्फ नैरेटिव हों इस या उस पार्टी का। खासकर, अगर वो किन्हीं फाइल्स से हूबहू मिलते हों, तो। आएँगे उसपे भी।     

अगली पोस्ट : 

YES सेल हो गया?        

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 जमीन पेपर्स -- Raise Objections and no click?