यूक्रेन युद्ध शुरु हौगा।
बला, माँ-बेटी मैं कीमे छोटी-मोटी कहा सुणी तै ना हो री?
बेटी का सामान आ गया, वो कोई घर खाली कर रही थी यूनिवर्सिटी में शायद, और इस माँ के छोटे-से घर पर इतना सामान रखने की जगह नहीं।
ले भाई, वो अंडी नै फेसबुक पै झंडा गाड दिया।
अच्छा। ले हाम नै भी गाड दिया, महारे प्लॉट मैं।
यो के सौदा भाई?
दे ट्रकां, दे ट्रकां, या लेट भी आंट दी एक अ रात मैं। जै दूसरी गली कन्हाँ, दूसरा गेट ना काढ़ दिया, तै हाम भी साँ ए ना।
दूसरी गली कन्हाँ?
हाँ। महारे सरपँच की गली।
महारे या महारी सरपँच की?
हाँ। हाँ। गामां मैं एक अ बात होया करै।
अच्छा? आदमी-औरत एक?
छोड़।
खोपरो, यो के साँग मचा राख्या सै? या पंचायती ज़मीन क्यों हड़पण लाग रे सो?
पंचायती? हाम तै नू सुणी सै अक इसके साथ जिस-जिस की ज़मीन लागै सै, उनकी सबकी सै। अर गाम का गन्दा पानी, सारा चलता कर राख्या सै ईहमैं। सुना सै, सफाई होवै सै या तै आसपास की। अर पंचायती? माहरे सरपंच कै एक कमरा-सा बताया कैदे आडै-सी, उह तै आगे सारी याहे पंचायती हड़प रहा सै अंडी। आज घर देखा सै उहका? कीत तहि पहुँच रहा सै?
तू पंचायत की बात करै ,आङे आपनै MLA, Ex MLA, गाँव मैं सबतै घणी ज़मीन के मालक बतानियें, बेरा ना कीत-कीत की ज़मीना पै, दादागिरी मैं आपणे नाम कराएँ हॉन्डें सैं।
और लो जी, सुना, उसी दिन कोई पुलिस भी आ गई वहाँ, ये देखने की पंचायती ज़मीन पै साँग माच रहा सै। सुना, किसे MLA नै ए भिझवाई। मगर आई और गई। अब कोई कहे, पहले सरपंच या MLA को पकड़ो, या इनकी हड़पी हुई खाली करवाओ। तो पुलिस भी आपणा-सा मुँह लेकै ए चालती बनती होगी? खैर, सुनी-सुनाई बातें, इधर-उधर की।
बेरा ए ना, कित सो ना धर राख्या सै, अर कीत सोनी आ? कीत सोना लीका अर कित, किसे-किसे राम या बलवान धरे सैं। भुण्डा साँग सै। इस पंचायत की तरफ ये, तो उस पंचायत की तरफ किमैं और। पंचायत या म्युनिसिपलिटी बदली, अर, उडे की ज़मीना की कहानी भी।
ये साँग कई दिन चला। सुना यूक्रेन युद्ध चल रहा था कोई। कहीं झंडा सिर्फ फेसबुक पर गड रहा था, तो कहीं? किसी ज़मीन पर?
बस इतना-सा ही फर्क है, की कहीं सिर्फ फाइलें चलती हैं। ज्यादा हो जाए, तो कोर्ट केस।
अमिर हों तो, सब उनके वकील निपटते हैं। साहब लोग सिर्फ उन्हें पैसे देते हैं। कोर्ट में शायद ही कभी दिखते हैं। गरीबों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं होती। हकीकत ये होती है, की गरीब होने का मतलब ही अक्सर हार होता है? उन्हें पता ही नहीं होता, की उनके केस में चल क्या रहा होता है। जब पता चलता है, तो साहब लोग बहुत कुछ निपटा चुके होते हैं। वकील इधर का हो या उधर का, अक्सर होता इन साहब लोगों का ही है। अक्सर। तो इतना पता होते हुए, पंचायती जैसी ज़मीनों के लिए, कौन कोर्टों की तरफ देखता होगा? थोड़े बहुत पुलिस ड्रामे के बाद, सब रफ़ा-दफा हो जाता है।
तो पुलिस आई-गई हुई? थोड़े ड्रावे के बाद? उसके बाद, आपस में मिलबैठकर खाने की बातें होती हैं। पता ही नहीं, आधी से ज्यादा लेट पर किस, किस ने रेत डलवा दिया था, एक-दो दिन के अंदर ही। मेरे लिए इस तरह का कोई ड्रामा, यूँ आँखों के सामने होते देखना, पहली बार था। चाचा का लड़का इस सबमें फ्रंट पर था। अब पैसे तो घर से ही लिए होंगे? सुना है, इतने पैसे उसके पास नहीं होते। कभी-कभार पीने वाले भाई को भी उसने चढ़ाया हुआ था। ले, तेरी ज़मीन भी बढ़ा दी। उसकी तरफ की पीछे वाली ज़मीन पर भी रेत डलवा थी। मगर इसके आगे तो कुछ और ही साँग था। यहाँ लेट की ज़मीन से, वहाँ खेत की ज़मीन की तरफ बढ़ते ज़मीनखोर।
मैंने एक-दो बार कहा भी, की ये क्या कर रहे हो तुम?
दुनियाँ ने किया हुआ है, तो हमने क्या अलग कर दिया?
दुनियाँ गोबर खाएगी, तू भी खाएगा?
और छोटू फिर गुल था। कई बार सुन चूका था, तो अब बात भी कम होने लगी थी।
चलो, ये तो कम पढ़े-लिखे, बेरोजगार, ज्यादातर गाँव में रहने वाले हैं। ये so-called ऑफिसर, फेसबुक पर कौन-से और कैसे झंडे गाड़ रहा था? वही भारत माता की जय वाले? या किसी युद्ध वाले? ये यूक्रेन युद्ध का रोहतक के मदीना या सोनीपत के लोगों से क्या लेना-देना? ये तो पागलपन का ही दौरा हो सकता है? मगर किसे? यहाँ जो कुछ कर रहे थे, उन्हें? या उनसे जो करवा रहे थे, उन्हें? सुरँगे, राजनीतिक पार्टियों की? राजनीती कम पढ़े-लिखे और बेरोजगार लोगों को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कैसे-कैसे दुरुपयोग करती है?
या फिर ये पागलपन का दौरा, उन न्यूज़ चैनल्स को पड़ गया था, जो खामखाँ में गला फाड़-फाड़कर, यूक्रेन युद्ध, युद्ध चिला रहे थे? कहीं पुराने विडियो चेप रहे थे, तो कहीं AC वाले न्यूज़ स्टुडिओं में बैठकर फर्जी विडियो बनाकर, उनमें स्पेशल भड़ाम-भड़ाम वाले इफेक्ट्स डाल रहे थे?
फिर तो यूक्रेन में भी कुछ तो हुआ ही होगा? कोई युद्ध? उसकी मार झेलने वाले लोग? कहीं कुछ मरे भी होंगे? तो कितने ही विस्थापित भी हुए होंगे? घर, बेघर जैसे?
कहीं किसी के पास बार-बार, घर खाली करो के, कोई GB (General Branch), MDU ईमेल भी भेझ रही होगी? तो कहीं, किसी अड़ोसी-पड़ोसी ससुराल से घर बैठी लड़की से भी कुछ ऐसा कहलवा रहे होंगे, मेरा घर खाली करो? चाहे उसकी क्वालिफिकेशन तक उस नौकरी के आसपास ना हों? मगर कैसे? ये अहम प्र्शन है। जितना इसे समझोगे, उतना ही Conflict of Interest की राजनीती के जालों से बच पाओगे।
Emotional Fooling? with personal effects?
आपको बताया या समझाया गया है, की आपके साथ ऐसा होने की वजह फलाना-धमकाना है। चाहे आपके और उसके रिश्ते में वैसा कुछ भी ना हो। वो आपके ससुराल को तो छोड़ो, पति तक को ना जानती हो। जो कहानी उनके बारे में, वो यहाँ-वहाँ आप लोगों से ही अब गाँव आने के बाद सुन रही है। वो ऐसे-ऐसे लफंडरों, गँवारों, जाहिलों या लालची लोगों को पसंद तक ना करती हो। कहाँ एक इंडिपेंडेंट इंसान और कहाँ ये गाँवों के सास-बहु के जैसे, एकता कपूर के सीरियल?
Twisting and Manipulating Facts?
आप यही भूल जाएँ की आप कौन हैं? और सामने वाला या वाली कौन? और उससे आपका रिश्ता क्या है? या जिनसे आप जोड़ रहे हैं, अपने भर्मित दिमाग के जालों में, उनमें और इसकी समस्याओं में फर्क क्या है?
जैसे कोई कहदे की आप मोदी हैं। हो सकता है आपका नाम मोदी हो। मगर, आप भारत के प्रधानमंत्री मोदी तो नहीं हैं ना? या समझने लगे हैं की हैं? मान लो, आप नरेंदर हों, वीरेंदर हों, कविता हों, सुनील हों, ऋतिक हों, सोनिया या राहुल हों? मगर कौन से? कोई MLA, MP, क्रिकेट प्लेयर, या? कौन? जहाँ कहीं अपने ये फर्क समझने में गड़बड़ कर दी, वहीं आप राजनितिक पार्टियों के जालों के शिकार में हैं। जितनी ज्यादा दिमाग में वो गड़बड़, उतनी ही ज्यादा ज़िंदगी में।
ऐसा भी नहीं है, की ये राजनीतिक पार्टियाँ आपकी मर्जी या पसंद-नापसंद से ही करेंगी। उनका तो रोबॉटिक एन्फोर्स्मेंट प्रोग्राम आपकी जानकारी के बिना भी चलता है। बल्की, ज्यादा अच्छे से चलता है।
तो, जितना आपको ये समझ आना शुरु हो जाएगा और जितना आप इससे खुद को दूर करना शुरु कर देंगे, उतने ही इस रोबॉटिक एन्फोर्स्मेंट के दुस्प्रभावोँ से भी बचते जाएँगे।
Psychological and Economic Warfare?
आज की दुनियाँ इससे बहुत ज्यादा प्रभावित है। या कहो की कोढ़ और रोबॉटिक एन्फोर्स्मेंट की राजनीती टिकी ही इस पर है। सब इस पर निर्भर करता है, की आपकी जानकारी किसी भी इंसान या विषय, वस्तु के बारे में कितनी सही है। और कितनी नहीं है? या कितनी गलत है?
वो फिर एक तरफ, देशों के युद्ध so-called officers द्वारा फेसबुक के झंडों में हों या दूसरी तरफ, गाँवों की फालतू पड़ी ज़मीनो पर कम-पढ़े लिखों या बेरोजगारों द्वारा।
वो फिर एक तरफ? AC studios में बैठकर, खास इफेक्ट्स डाल कर भड़ाम-भड़ाम करते और TRP और पैसा बटोरते चैनल हों। या फिर उपजाऊ ज़मीनों को शिक्षा या राजनीती के धंधे के नाम पर, हड़पते शिक्षण संस्थानों के प्रधान हों या उनके कोई अपने।
और दूसरी तरफ? सच में किन्हीं ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते, या सेनाओं के हमलों में मरते, आम नागरिक या खुद उन सेनाओं के जवान। फर्क सिर्फ उन घरों को या लोगों को पड़ता है। बाकी, अपने-अपने और अपनी-अपनी तरह के झंडे गाड, यहाँ-वहाँ तबाही मचा या लूटपाट कर या हड़पकर चलते बनेंगे।
वैसे उपजाऊ खेती की ज़मीनों को 2-बोतलों या औने-पौने दामों में हड़पते, शिक्षण संस्थान और किसी NSDL या Protean की वेबसाइट के नाम पर ऑनलाइन धोखाधड़ी का, आपस में कोई लेना-देना है क्या? जानने की कोशिश करते हैं आगे, किसी पोस्ट में।